-अनुभा प्रसाद का आलेख-
पुरुष संतान का व्यामोह भारतीय संस्कृति, विशेषत: उत्तर भारतीय पितृ-सत्तात्मक संस्कृति का एक ऐसा अविच्छिन्न तत्व है जिसे अनदेखा करना असम्भव है। साथ ही पुरुषों के स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए किए जाने वाले अनगिनत व्रत-त्योहारों का हमारी परम्परा के साथ कुछ ऐसा घाल-मेल है कि इनमें किसी को भी कुछ अजीब नहीं लगता, न इस प्रकार के प्रश्नों की गुंजाइश है कि क्या इसका विलोम भी सम्भव है, जब पुरुष एक कठिन व्रत का अनुष्ठान स्वयं करे। और इसी समाज में बिहार और पूर्वांचल का पारम्परिक ‘लोक आस्था का महापर्व’ छठ है जो कई प्रकार के पूर्वाग्रहों का ‘ऐंटी-थीसस’ है, बिलकुल स्वाभाविक और अनायास रूप में।
छठ से उपजी सामाजिक समानता और समरसता श्लाघ्य है, जहाँ राजा-रंक सब उन्हीं बाँस के सूप-दौरों से एक ही घाट पर अर्घ्य देते दीखते हैं और एक जैसे ही प्रसाद का अर्पण करते हैं, और किसीको भी कुछ विशेष या अजीब नहीं लगता। बचपन से यही तो देखते आए हैं। यदि कोई पुरुष छठ व्रत का अनुष्ठान करता है (हालाँकि संख्या में पुरुष व्रती काफ़ी कम ही होते हैं), तो भी कोई खबर नहीं बनती- यह भी उतना ही स्वीकार्य है जितना महिलाओं द्वारा व्रत किया जाना। महिलायें अविवाहित हों, विवाहित अथवा विधवा-हर व्रती एक-समान पूजनीय है, वंदनीय है!
छठ के पारम्परिक गीत भी लैंगिक समानता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जहाँ लगभग सभी अन्य लोकगीत और सोहर पुरुष संतान की अदम्य इच्छा और उसके गौरव-गान की परम्परा को और सशक्त करते हैं, छठ में कातर-आतुर व्रती, ‘घोड़ी पर चढ़ने वाले’ पुत्र के साथ ‘रुनकी झुनकी’ पुत्री और ‘पढल पंडितवा दामाद’ की अभिलाषा करते हैं। अगर हम एक मध्ययुगीन पुरुष-सत्तात्मक समाज की परिकल्पना करें तो वंचित-अवांछित बेटियों का नैरेटिव इस एक गीत के द्वारा धराशायी होता प्रतीत होता है।
हम प्रकृति की स्तुति करते हैं, प्रकृति के अवयव ही अर्पण करते हैं। जलवायु और मौसम के अनुसार प्रकृति के साधन- अन्न-फल-फूल हमारे उपादान हैं और सबके द्वारा सुग्राह्य प्रसाद भी। किसी महँगे प्रसाद, मूल्यवान वस्त्र और आडम्बर की आवश्यकता नहीं, न ही अपने सामर्थ्य के प्रदर्शन का कोई अवसर या उपक्रम!
सभी छठ लोकगीत, पर्व के दौरान न्यायसम्मत श्रम-विभाजन की बात करते हैं। पर्व सबको मिल-जुल करना है, महिला हो या पुरुष, राजा हो या रंक, जाति चाहे कोई भी हो। यहाँ व्रती सर्वोपरि है- कठिन उपवास और शारीरिक श्रम से तपाया हुआ- वही कर्ता है, वही रसोईया, वही पुरोहित, वही यजमान, और वही सबके आदर सम्मान का सम्बल, वही ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम!
आशा और अनुरोध है- हम छठ की आत्मा तक पहुँचें, हर आडम्बर को निरस्त करें- छठ में आडम्बर और कर्मकांड का कोई स्थान नहीं, प्रकृति से जुड़ें, समानता के आग्रही बनें, अपनी नदियों और उनके घाटों का रक्षण करें, छठ की सरलता और स्वाभाविकता का सम्मान करें और अपनी अप्रतिम परम्पराओं को जीवित रखने का सतत साधन करें।
जय दीनानाथ, जय छठी मैया!
प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद। छठ का वास्तविक संदेश अधिकाधिक लोगों तक पहुँचे, यही मंशा है। जय सूर्यदेव, जय छठी मैया🙏